बिहार - ज्ञान की धरती या स्कूल ऑफ़ चीटिंग


                                  
कुछ दिनों पहले बिहार में परीक्षा में नक़ल की कुछ तस्वीरें वायरल हुईं । देख कर दुःख हुआ कि आर्यभट्ट, चाणक्य और विद्यापति की भूमि पर ये कैसा तमाशा चल रहा है। यह वही धरती है जहाँ नालंदा और विक्रमशिला हुआ करते थे। यह वही धरती है जहाँ दिनकर ने वीर रस की रचनाओं से लोगों में ओज और जोश भरा और रेणु के गँवई अंदाज ने गाँव की मिटटी और मिठास से जनमानस को परिचित कराया। यह वही धरती है जिसने राजेंद्र प्रसाद जैसे छात्र को जन्म दिया जिसकी काबिलियत पर खुद परीक्षक ने स्वीकारा कि "परीक्षार्थी परीक्षक की तुलना में बेहतर है"। यह वही धरती है जिसके पिछड़ेपन की बात सभी करते हैं पर ये भी स्वीकारते हैं कि बिहारी गणित में तेज होते हैं या बिहारी पढ़ने में अच्छे होते हैं। सरकारी नौकरी से लेकर आई टी और दूसरी निजी क्षेत्र की कंपनियों में बिहारियों की बड़ी तादात नक़ल से तो नहीं ही बढ़ी होगी, काबिलियत ही वजह रही होगी। 

बिहार के अतीत का बखान मेरी मंशा नहीं हैमेरी मंशा इस घटना के विश्लेषण की है। नक़ल की यह घटना इस गौरवशाली अतीत पर एक कालिख की तरह है, जहाँ ज्ञान विवश दिख रहा है। बिहार सरकार का पर्यटन मंत्रालय बिहार को "ज्ञान की धरती" कहता है पर विडम्बना यह है कि बिहार ६३ % साक्षरता के साथ भारत में २९ वें स्थान पर हैं। अगर आज बाबा नागार्जुन होते तो खिसिया कर "मंत्र कविता" में दो और छंद जोड़ देते - 
ॐ परीक्षा, ॐ नकल,
ॐ बाहर से आते प्रश्नों के हल,
ॐ शिक्षक, ॐ विद्यार्थी,
ॐ उठ रही शिक्षा की अर्थी। 

वजह क्या रही कि नक़ल इस स्तर पर ज़रूरी हो गया कि लोग जान की परवाह किये बिना तीसरी मंज़िल तक नक़ल के पर्चे पहुँचाने पहुँच गए। गलती किसकी है? सरकार की, प्रशासन की, शिक्षकों की, अभिभावकों की, विद्यार्थियों की या परिस्थिति की? जिम्मेदार तो सब हैं, सरकार- नीतियों को प्रभावशाली न बना पाने के लिएप्रशासन- कदाचार मुक्त परीक्षा न करा पाने के लिए, शिक्षक- ज्ञान के सही मायने नहीं बता पाने की लिए, अभिभावक- बच्चों के चरित्र निर्माण के बारे में न सोचने के लिए और विद्यार्थी- परीक्षा में नक़ल करने के लिए। पर वजह की तह तक जाएँ तो आज बिहार में परिस्थिति ही ऐसी बन गयी हैं। परिस्थिति नाकामयाबी की, नाकामयाबी मानव विकास सूचकांकों के हर पहलुओं पर बिहार के सबसे नीचे होने की, नाकामयाबी- अच्छे स्कूल कॉलेज के अभाव में बच्चों के राज्य से बाहर जाने की, नाकामयाबी- उद्योग धंधे न होने पर मानव संसाधनो के दूसरे राज्यों में गमन की, नाकामयाबी- बिहारियों के अपने सगे सम्बन्धियों से दूर दूसरे प्रदेश में रह विरह का दर्द सहने की, नाकामयाबी- इलाज की सुविधा न होने पर बीमारों को ले दिल्ली, बनारस या चंडीगढ़ ले जाने की। नाकामयाबी की नकारात्मकता इस हद तक घर कर गई है कि लोग अब तरीकों के बारे में नहीं सोचते, परिणाम के बारे में सोचते हैं।

एक राष्ट्रीय अखबार ने इसे नाम दिया "बिहार स्कूल ऑफ़ चीटिंग"। इस अखबार ने बाकायदा नक़ल करने पर बिहार में नक़ल के तरीकों और कारणों पर अच्छा खासा शोध भी प्रस्तुत किया। यह बात अलग है की यह वही अखबार है जिसे एक अभिनेत्री के दिखते हुए क्लीवेज ज्यादा महत्वपूर्ण खबर लगते हैं। बात खबर प्रकाशित करने की नहीं है, बात है खबर को महिमामंडित करने की, बात है कारणों का विश्लेशण न कर खबर के बाल का खाल बनाने की।  पर अच्छा हुआ खबर इतनी उछली कि सरकार ने भी पाला बदला, कल जहाँ शिक्षा मंत्री ने वस्तुस्थिति पर हाथ खड़े कर दिए थे वही आज सरकार मुस्तैद खड़ी है और परीक्षा केंद्र पर कड़ाई इतनी है कि अमेरिकन फ़ेडरल एविएशन एडमिनिस्ट्रेशन भी शरमा जाये। 

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