बिहार के लिए "नीतीश बनाम मोदी" के मायने

बिहार के विकास और उत्थान की जब भी बात होगी नीतीश कुमार उन चंद नेताओं में शामिल होंगे जिन्होंने वस्तुतः बिहार के विकास को ही अपना धर्म और राजनीतिक कर्म माना है। बिहार की चरमराई अर्थव्यवस्था से लेकर रोती बिलखती कानून व्यवस्था को पटरी पर लाने का काम जितना मुश्किल था उससे भी मुश्किल था शर्म और व्यंग्य के पात्र बन चुके बिहारियों में गर्व के भाव पैदा करने का, जिसे नीतीश कुमार ने बखूबी निभाया।

नीतीश के राजनैतिक सफर में मोदी नाम बड़ा ही महत्व रखता है और इसे दो भागों में देखना चाहिये। मई २०१४ के पहले जहाँ नीतीश संग मोदी (सुशील मोदी ) बिहार के विकास के स्वर्णिम अध्याय लिख रहा था वही बाद का समय नीतीश बनाम मोदी (नरेंद्र मोदी) बिहार के राजनीतिक दाँव पेंच का पर्याय बना हुआ है, जिसमें साख खो चुके मौसम वैज्ञानिक राम विलास पासवान से लेकर बिना आधार वाले जीतन राम माँझी तक बिहार की राजनितिक बिसात के महत्वपूर्ण प्यादे बने हुए हैं। राजनीति के दाँव पेंच अक्सर सही निशाने पर लगे यह ज़रूरी नहीं है, सत्रह साल के गठबंधन तोड़ने से लेकर माँझी को मुख्यमंत्री बनाना, कुछ ऐसे ही गलत नतीजे प्रतीत होते हैं। नरेंद्र मोदी से नीतीश का राजनैतिक बैर विचारों का मतभेद है या आकाँक्षा की ज़िद, ये तो नीतीश ही जानते होंगे, पर इसका जो नुकसान हुआ, वह नीतीश से ज्यादा बिहार और बिहार के लोगों का हुआ है। 

बिहार में विधानसभा चुनाव ज्यों ज्यों नजदीक आ रहा है, नीतीश और मोदी में तल्खियाँ सामने आने लगी हैं। दोनों के एक दूसरे पर कसे जाने वाले व्यंग्य आम जनता से लेकर समाचार पत्रों और राजनितिक पंडितों में चर्चा का विषय बने हैं। बातें जब खुलकर सामने आएँगी तब चर्चा पंजाब में २००९ में नीतीश और मोदी के चुनावी मंच साझा करने से लेकर बिहार में नीतीश का मोदी से खाने की प्लेट छीनने तक जाएगी। पता नहीं वक़्त ने ऐसे ही कई राज दबाकर रखे हैं जिनके निकलने का अंदाज और अंजाम भी भविष्य की संदूक  में बंद हैं। 

मोदी जी ने गया की रैली में आंकड़ों की बदौलत बिल्कुल सही फ़रमाया है कि बिहार अपनी कबिलियत के हिसाब से नतीजे नहीं पा रहा है। आंकड़े भी बिल्कुल सटीक हैं, १० करोड़ की जनसँख्या वाले प्रदेश में गिनती के इंजीनियरिंग कॉलेज, मेडिकल कॉलेज, अस्पताल, स्कूल, डिग्री कॉलेज हैं। हर साल लाखों की  संख्या में बिहारी छात्र बाहर पढ़ने जाते हैं और जिन पर करोड़ों रूपये बिहार जैसे गरीब राज्य से बाहर दूसरे राज्य में जाते हैं। जो छात्र बाहर पढ़ने जाते हैं वो बाहर के ही हो जाते हैं क्योंकि बिहार में काम करने के लिए रोजगार और कम्पनियाँ नहीं हैं। पर्यटन के नाम पर भी गिनती के स्थान हैं जिनका भी पूर्ण विकास नहीं हो पाया है और यही हाल चिकित्सा और व्यवसाय का है। ऐसा नहीं है कि काम नहीं हुआ है पर उम्मीद के मुताबिक काम नहीं हुआ है। अब भी हर बाहर गया बिहारी बाट जोह रहा है की कब स्थितियाँ सुधरे और घर वापसी संभव हो और हर बीतता समय उसे अंदर से कचोटता है, व्यग्र करता है। 

विषाद सिर्फ बिहार में रह रहे बिहारियों में ही नहीं है बल्कि बिहार से बाहर रह रहे उन करोड़ों बिहारियों में है, जो पढाई, रोजी रोटी, इलाज़ के लिए या अन्य किसी कारण से बिहार से पूर्ण रूप से पलायन कर चुका है या आंशिक रूप से विस्थापित है और जिनके मन में बिहार से बाहर रहने की टीस आज भी  है और जो बिहार लौटने को व्यग्र, बेताब है । वर्ना क्या ये संभव नहीं दिल्ली, मुंबई और देश के दूसरे शहरों में ऑटो चलने से लेकर, पंजाब, हरियाणा के खेतो में मजदूरी करने वाले, आईटी कंपनियों में कोड्स लिखने वाले से लेकर , बैंकों में करोड़ों के एकाउंट्स सँभालने से वाले और जिला और राज्य के प्रशासन सँभालने वाले आईएएस, आईपीएस बिहारी, जो दूसरे राज्यों की तक़दीर बना रहे हैं, अपने राज्य की तस्वीर भी ना सँवार पायें। 

बिहार विधानसभा चुनाव के नतीजे जो भी हों लेकिन बिहार की राजनीति  घूम फिर कर वही पहुँच गयी है, दो दशक पहले जहाँ से शुरू हुई थी।  सियासी मोहरे वही हैं जो दो दशक पहले थे और बिहारी उसी दोराहे पर खड़े हैं जहाँ विकास की बजाये जंगलराज और जातिगत समीकरण चुनावी मुद्दे बने पड़े हैं। 

Comments

Pranav said…
Bilkul sahi bayan kiya hai aapne vartman mein banti hui paristhiyon ko

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