बहुत हो गया, अब घर जाना चाहता हूँ।

यह रचना हर उस व्यक्ति को समर्पित है जो कुछ पाने की कोशिश में अपने जन्म स्थली से दूर किसी और शहर में रहने को मजबूर है। जीने की मज़बूरी उसे घर वापस आने नहीं देती और घर का प्यार बाहर रहने नहीं देता। कुछ अदद सी खुशियों के लिए बहुत सारी खुशियों की तिलांजलि देना कतई बुद्धिमानी का सबब नही माना जा सकता, पर शायद इसी का नाम मज़बूरी है। अपने जीवन के लगभग तीन चौथाई भाग अपने घर से दूर रहकर अब ऊब सा गया हूँ । अब तो यूँ लगता है खुद को वैश्विक नागरिक घोषित कर दूँ, पर यहाँ भी सरकारें पासपोर्ट और वीसा का चक्कर लगा मुझे अपने गाँव का ही बनाये रखेंगी, जो शायद मुझे भूल चूका है और शायद मैं भी उसे भूल चूका हूँ । अपनी जन्म स्थली की याद में। 


मुड़ कर मैंने देखा, जीवन के इस पार और उस पार,
कुछ पाने की आपाधापी में,
उड़ान हो गयी आसमान से ऊँची,
और चाहत समन्दरों से गहरी,
इन तमन्नाओं से अवकाश चाहता हूँ,
तमन्नाओं के मीठे फल से दूर कहीं जा,
रिश्तों की गर्माहट में समाना चाहता हूँ।
बहुत हो गया अब घर जाना चाहता हूँ।

आशियाँ बनाने के सबब में,
बना लिया है पराये शहर में छोटा सा घरोंदा,
खरीद ली हैं कुछ रद्दी सी चीज़ें हीरों के भाव,
औने पौने दामों में इन्हें बेचना चाहता हूँ,
अपनों से अजनबी बन बसर कर ली एक ज़िन्दगी,
अब अपनों से भरा एक बसेरा बसाना चाहता हूँ,
बहुत हो गया अब घर जाना चाहता हूँ।

अपनी कद में सिमटा जा रहा हूँ,
शहर के फैलने से अच्छा गाँव का सिकुड़ना चाहता हूँ,
झूठे दम्भ भरे मुखौटों से बाहर निकल,
भूली बिसरी सच्चाई को फिर से पाना चाहता हूँ। 
बोतल डब्बों में भरे खुशियों से बाहर निकल,
गाँव की उड़ती धूल में लिपट बिसर कर गाना चाहता हूँ। 
बहुत हो गया अब घर जाना चाहता हूँ ।

एक तलब सी उठी है,
किलोरें करते मन के अंदर,
बहुत  हो गया ,
उगता सा गया हूँ इस चिल्ल पों की धुन से,
अब चिड़ियों के धुन का सवेरा चाहता हूँ,
भीड़ का हिस्सा बन चलते चलते थक सा गया हूँ,
सुकून से भरा एक पल पाना चाहता हूँ।
बहुत हो गया अब घर जाना चाहता हूँ।

- रोहित कुमार

Comments

himanshu said…
Dil chu liye Galib...
Anonymous said…
U written this. Cant belive
Unknown said…
Remarkable and thoughtful !!!
Anonymous said…
Very true

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