इश्क़ में शहर होना

                                                              इश्क़ में शहर होना

अकेला होना भी अच्छा है, जहाँ अकेलापन आपको तन्हाइयों की तरफ ले जाता है वही यह आपको आपके होने का भी अहसास करता है । अकेले में आप अंतर्मन और बाह्य वातावरण के बीच हो रहे अंतर्द्वंद या परस्पर सौहार्द को महसूस कर सकते हैं । ऐसा ही कुछ महसूस हुआ पिछले कुछ दिनों जब मैंने पिछले कुछ दिन जयपुर में गुजारे । मौका था जयपुर लिटरेचर फेस्टिवल का । मैं, मेरे कुछ कपडे और मेरा कैमरा, बस यही कुछ सामान थे मेरे पास, मेरे लिबास को छोड़कर । बाकी बातें बाद में, अभी बातें सिर्फ "इश्क़ में शहर होना " को लेकर ।

" इश्क़ में शहर होना ", रवीश कुमार की लिखी लप्रेक । भीड़ में खड़े होकर मैंने भी सोचा रवीश की हस्ताक्षर की हुई किताब ली जाये, लग गया लाइन में । भीड़ ज्यादा थी लेकिन हमने भी हिम्मत नहीं हारी, मौका आया तो लगा जैसे रवीश ने ठग लिया । अरे भाई, जब इतनी मशक़्क़त की है, धक्का मुक्की की है तो कम से कम हस्ताक्षर के साथ दो बातें भी हो जातीं या रवीश हस्ताक्षर के साथ कुछ और शब्द लिख देते, किताब कोई ट्विटर तो नहीं जो १४० शब्दों का प्रतिबन्ध है । खैर जो हुआ सो हुआ ।

बात तब खटकी जब मैंने आसमान में उड़ते हुए किताब के पन्ने खोले और ठिठक सा गया, ये तो पता था रवीश बिहार से हैं पर ये नहीं पता था ये तो हमारे मोतिहारी से हैं । सोचा काश पहला पन्ना लाइन में ही खोल लिया होता तो बड़ी ढिठई से कहते, रवीश भैया थोड़ा साइनवा बढ़िया से कीजियेगा हम भी आपके शहर से ही हैं, तो मुलाकात नहीं होती मुलाकतवा होता और कुछ बतियाते भी इधर उधर की बातें।  

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